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ब्राह्म॑णासः॒ पित॑रः॒ सोम्या॑सः शि॒वे नो॒ द्यावा॑पृथि॒वी अ॑ने॒हसा॑। पू॒षा नः॑ पातु दुरि॒तादृ॑तावृधो॒ रक्षा॒ माकि॑र्नो अ॒घशं॑स ईशत ॥१०॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

brāhmaṇāsaḥ pitaraḥ somyāsaḥ śive no dyāvāpṛthivī anehasā | pūṣā naḥ pātu duritād ṛtāvṛdho rakṣā mākir no aghaśaṁsa īśata ||

पद पाठ

ब्राह्म॑णासः। पित॑रः। सोम्या॑सः। शि॒वे इति॑। नः॒। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। अ॒ने॒हसा॑। पू॒षा। नः॒। पा॒तु॒। दुः॒ऽइ॒तात्। ऋ॒त॒ऽवृ॒धः॒। रक्ष॑। माकिः॑। नः॒। अ॒घऽशं॑सः। ई॒श॒त॒ ॥१०॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:75» मन्त्र:10 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:20» मन्त्र:5 | मण्डल:6» अनुवाक:6» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य परस्पर कैसे वर्त्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पितरः) पिता के समान प्रजाजनों पर कृपा करनेवाले (सोम्यासः) शान्तियुक्त गुणों के योग्य (ब्राह्मणासः) वेद और ईश्वर के जाननेवाले विद्वानो ! तुम (नः) हम लोगों को अधर्म के आचरण से अलग रक्खो जैसे (अनेहसा) न हिंसा करनेवाली (शिवे) मङ्गलकारिणी (द्यावापृथिवी) सूर्य और पृथिवी (नः) हमारे लिये हों, वैसे उपदेश करो जैसे (पूषा) विद्या और विनय से पुष्टिकारक (ऋतावृधः) सत्य का बढ़ानेवाला (नः) हम लोगों की (दुरितात्) दुष्ट आचरण से (पातु) पालना करे जिससे (अघशंसः) चोर हम लोगों को (माकिः) न (ईशत) मारने के लिये समर्थ हो, हे राजन् ! तुम इन की निरन्तर (रक्ष) रक्षा करो ॥१०॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो विद्वान् जन तुम लोगों को विद्या और विनय देवें तथा बिजुली और भूगर्भविद्या से सुख से सम्पन्न करें और अधर्माचरण से अलग रक्खें तथा जो राजा चोर आदि दुष्टों से निरन्तर रक्षा करे, उस सब की तुम निरन्तर सेवा करो ॥१०॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः परस्परं कथमनुवर्त्तेरन्नित्याह ॥

अन्वय:

हे पितर इव सोम्यासो ब्राह्मणासो विद्वांसो ! यूयं नोऽधर्माचरणात्पृथक् रक्षत यथाऽनेहसा शिवे द्यावापृथिवी नोऽस्मदर्थं स्यातां तथोपदिशत यथा पूषा ऋतावृधो नोऽस्मान् दुरितात् पातु यतोऽघशंसोऽस्मान् माकिरीशत। हे राजँस्त्वमेतान् सततं रक्षा ॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ब्राह्मणासः) वेदेश्वरवेत्तारः (पितरः) पितर इव प्रजानामुपरि कृपालवः (सोम्यासः) सोमगुणानर्हाः (शिवे) मङ्गलकारिण्यौ (नः) अस्मभ्यम् (द्यावापृथिवी) सूर्य्यभूमी (अनेहसा) अहिंसिके (पूषा) विद्याविनयाभ्यां पोषकः (नः) अस्मान् (पातु) (दुरितात्) दुष्टाचरणात् (ऋतावृधः) सत्यवर्धकाः (रक्षा) पालय। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (माकिः) निषेधे (नः) अस्मान् (अघशंसः) स्तेनः (ईशत) हन्तुं समर्थो भवेत् ॥१०॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! ये विद्वांसो युष्मभ्यं विद्याविनयौ प्रयच्छेरन् विद्युद्भूगर्भादिविद्यया सुखिनः सम्पादयेयुरधर्माचरणात् पृथग्रक्षेयुर्यश्च राजा चोरादिभ्यः सततं रक्षेत् तान्सर्वान् यूयं सततं सेवध्वम् ॥१०॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जे विद्वान लोक तुम्हाला विद्या व विनय शिकवितात आणि विद्युत व भूगर्भविद्येने सुखी करतात, अधर्माचरणापासून दूर ठेवतात, तसेच जो राजा चोर इत्यादी दुष्टांपासून निरंतर रक्षण करतो त्या सर्वांची तुम्ही निरंतर सेवा करा. ॥ १० ॥